Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, November 12, 2013

मेरे नवीनतम व्यंग्य संग्रह 'माई इंडिया ग्रेट' की प्रस्तावना प्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी जी ने लिखी है. यहाँ आपसे 'शेयर' करने का लोभ न छोड़ पाया



 

"किस्सागोई की कला इन दिनों किस्सों से गायब सी है. किस्सागोई का अर्थ कहानी कहने का वह निराला अंदाज़ जो पाठक को पहली पंक्ति से ही पकड़ ले और फिर ‘किस्सा तमाम होने तक’ उसे छोड़े नहीं. आज किस्से कहने की रौ में भाषा और शैलीगत इतने ‘ऊलजलूल’ की हद तक अजीबोगरीब प्रयोग आज़माये जाने लगे हैं कि प्राय: किस्से का ‘किस्सा तमाम’ हो जाता है. यही कारण है कि आज की कहानी के पाठक कम होते जा रहे हैं. तो यह थी वह पृष्ठभूमि जिसे मन में रखते हुए मैंने रवीन्द्र कुमार की यह किताब पढ़नी शुरू की थी.

मेरे डर दो तरह के थे. एक तो यह कि कहीं यह भी, व्यंग्य की उन सपाटबयानी में पगी रचनाओं का ‘शौकिया लिखा’ संग्रह न निकल आए जो आजकल गाजरघास की तरह
यहाँ वहाँ पैदा हो जाते हैं. व्यंग्य में बात करने को लोगों ने मज़ाक समझा हुआ है. वे सोचते हैं कि यदाकदा, छुटपुट चुटकला छोड़ लेने की कला के सहारे वे व्यंग्यकार हो सकते हैं. अफसरों में विशेष तौर पर यह रोग पाया जाता है. उनके घिसेपिटे चुटकलों पर भी मातहत, चमचागीरी के तहत इतनी ज़ोर से, इतनी देर तक हँसते हैं कि उन्हें गलतफहमी होना लाज़िमी है. तो दूसरा डर था कि मैं एक बड़े अफसर की किताब से रूबरू हूँ. अफसरों में आजकल व्यंग्यकार इसीलिये खूब पैदा हो रहे हैं क्योंकि कोई राजा को यह बताने की हिम्मत नहीं करता कि वह नंगा है तो जब रवीन्द्र कुमार का पता चला कि वे भारतीय रेल में एक बड़े अफसर भी हैं तब ये सारे भय भी मेरे सामने आये.
पर ज्यों ज्यों मैंने यह किताब पढ़ी, मैं इसके आनन्द में डूबता चला गया.

यह किताब न तो मात्र व्यंग्य का संग्रह है, न ही शास्त्रीय अर्थों में कोई कहानी संग्रह. इस किताब को पढ़ कर किस्सागोई की उस विलुप्त होती जा रही कला की ताकत पर पुनः भरोसा पैदा हो जाता है. रवीन्द्र को किस्सा कहने की कला खूब आती है उनकी भाषा और शैली में ‘नानी की कहानियों’ वाली कला है. उनके किस्सों में इतना वैविध्य है कि हर नया किस्सा वास्तव में नया होता है. इस किताब में इतने सारे किस्से हैं और उनमें इतनी इतनी विविधताएं हैं जितनी ‘माई इंडिया’ में रही हैं. ‘माई इंडिया’ के बारे में ही लेखक ने यह किताब लिखी है. इस किताब में व्यंग्यनुमा लेख भी हैं परंतु उन्हें भी लेखक ने किसी रोचक किस्से की तरह ही निभाया है. इनमें बहुत से किस्से भारतीय रेल के जीवन से उठाये गए हैं जो वैसे भी रवीन्द्र ही लिख सकते थे. फिर फिल्मों, राजनीति, मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों आदि ट्रेडीशनल विषय तो हैं ही. हाँ, इन पारंपरिक विषयों का निर्वाह भी लेखक ने अपने ही अंदाज़ में एकदम अलग ढंग से किया है.

मेरा मानना है कि हर वह लेखन सार्थक कर्म है जो अपने पाठक से सीधे जुड़ता है. यह जुड़ाव ऐसा सरल काम नहीं है. ऐसा लिखने में अच्छे अच्छों के पसीने छूट जाते हैं. विषय को जब तक आप जीवन से यूँ न उठायें कि वह पूरी रचना में वैसा ही जीवंत रहे जैसा वह वृहद जीवन का हिस्सा बन कर था, और भाषा तथा कहन में भी जब तक वह जीवंत प्रवाह न हो जो किस्से की लय में एक संगीत भर दे, तब तक कोई भी रचना अपने पाठक से नहीं जुड़ सकती. रवीन्द्र कुमार अपनी इस किताब में ऐसा ही करने का प्रयास करते हैं और खास सफल भी हुये हैं.

इस किताब से गुजर कर उस भारत से आपका परिचय एक बार फिर होता है जो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद इतना जीवंत है कि उसकी धड़कनों को यदि ठीक से पकड़ लिया जाये तो बड़ी जीवंत रचनायें पैदा हो सकती हैं. रवीन्द्र कुमार की ये रचनायें वैसी ही हैं "

डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
11 नवम्बर, 2013

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