Ravi ki duniya

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Saturday, October 20, 2012

व्यंग्य : सार्वजनिक खरीद में पारदर्शिता




सरकार भी कभी-कभी अच्छे मूड में होती है. अर्थात हल्के-फुल्के मज़ाक के मूड में. अब यहीं देख लीजिये सार्वजनिक खरीद में पारदर्शिता भई वाह ! जैसे कि पहले नहीं थी क्या ? भाई साहब सार्वजनिक खरीद में पारदर्शिता भी है, दूरदर्शिता भी है. भाईचारा भी है ( चारा शब्द पर जोर है ) सौहार्द भी है समृद्धि भी है. बरकत भी है. मैं एक बार एक फर्नीचर की दूकान पर गया मैंने चेयर का भाव पूछा तो उसने मुझसे पूछा आपको घर के लिये चाहिये या ऑफिस के लिये अर्थात दोनों के रेट अलग-अलग हैं. एक ज़माने में सरकारी सुपर बाज़ार और केंद्रीय भंडार की खरीद की बड़ी मान्यता थी. वहीं के सेल्समैन आपको अपनी पैट चाँदनी चौक. करोल बाग़ या लाजपत नगर की दूकान का पता दे देते थे. धीरे से यह भी बता देते थे कि आप फिक़र ना करें रसीद सुपर बाज़ार / केंद्रीय भंडार की ही मिलेगी.  

सार्वजनिक दफ्तरों में एक बात क़तई बर्दाश्त नहीं की जाती कि एक अकेला आदमी खाता फिरे और खा-खा कर अपनी सेहत बिगाड़ ले और बाकी सूखाग्रस्त इलाके के मवेशियों की तरह इधर-उधर सूंघते फिरें. अत: वहां कमेटियां बना दी गयीं हैं. तरह तरह की रंग-बिरंगी कमेटियां. लोकल परचेज़ कमेटी, स्पॉट परचेज़ कमेटी, एक लाख वाली कमेटी, एक करोड़ वाली कमेटी. इससे हौंसला, हिम्मत और हठ बनी रहती है. कमेटी बनाने के पीछे यही नीयत और नीति काम करती है. जितनी पारदर्शिता सरकारी कामकाज और सार्वजनिक खरीद में है, उतनी तो आपके हमारे घर में भी नहीं. सबको पता होता है कि दो परसेंट देना है या दस परसेंट. किसे देना है और कहां देना है. आप तो वैट अब लाये हैं हमारे यहां वैट न जाने कब से है. हम इसे वेट कहते हैं. वेट यानि वज़न. पारदर्शिता है. बरोबर है. आर.टी.आई. क्या है ? पारदर्शिता है. 



नौकरशाही आर.टी.आई नामक बिकिनी पहनकर इठलाती हुई रैम्प वॉक कर रही है. कहते हैं जिससे खरीदना है उसे एल-1 क्यों कहते हैं. आप नासमझ हैं अगर कहें कि एल-1 का अर्थ लोएस्ट-1 होता है. सच तो ये है इसका अर्थ है लाओ नम्बर-1 अर्थात हमनें इतने सारों में से तुमको चुना है. आओ मेरे प्यारे ! लाओ नम्बर-1  

सार्वजनिक खरीद में जो रक़म ली-दी जाती है उसका मुहावरा कुछ भी होअंडर दि टेबल, गुड्विल मनी, गुडलक मनी, बच्चों के लिये मिठाई, भाभी जी के लिये भेंट, अर्थ एक ही होता है. आजकल उसे यह कह कर जस्टीफाई किया जाता है कि यह तो आपकी वित्तीय क्षमता जानने का जरिया भर है.  वित्तीय कंडीशन जानने का तरीका मात्र है. फर्ज़ करो आपको गैस एजेंसी लेनी है या पेट्रोल पम्प लेना है तो जो भी आप पहले देंगे उसी से तो यह पता चलेगा कि पार्टी फाइनेंशियली कितनी साउंड है. पेट्रोल पम्प चला भी पायेगी या नहीं. कहीं घसखोदों को तो नहीं गैस एजेंसी दे दिये. या कहीं टटपूंजियों को तो नहीं एल-1 कर दिया जो किसी के भी काम न आ सकें और काम भी न हो. फिर जनता ने ही शोर मचा देना है और कहते-फिरना है कि पैसे खा लिये,पैसे खा लिये.  

मैंने एक बार अपने दफ्तर में स्टॉक रजिस्टर मंगाया तो पता चला कि एक वैक्यूम क्लीनर भी है. मैंने कहा लाओ भई और कारपेट साफ करो. जो वो ले कर आया उसे देख कर मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. आपको याद है न पहले बर्तनों पर कलई करने वाले एक धौंकनी सी साथ ले कर चला करते थे. बस वही थी और वह बोला सर मेरे पास तो ये ही है तो यह है कहानी सरकारी दफ्तर की. दफ्तर के गोदाम में पड़ा तख्त, कैसे पहले तख्ता और फिर तख्ती बन जाता है. एक पुस्तक खरीद में मैं भी एक कमेटी का सदस्य बन दूसरे शहर गया. ( कमेटी अक्सर दूसरे शहर जाती है ताकि लोग पहचान न पायें) मेरे साथ जो दो सदस्य थे उनका पुस्तकों से वही नाता था जो फैशन-मॉडल का वस्त्रों से. लेकिन वे कमेटी के सम्मानित सदस्य थे और अपने अपने विभाग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. देखते देखते उन्होने मँहगी से मँहगी डिक्शनरी अपने लिये उपहारस्वरूप कबाड़ ही लीं. 



मेरा हैदराबाद का एक मित्र अक्सर अपनी दवाई की कम्पनी के काम से दिल्ली सरकारी दफ्तर में दवाई की सरकारी खरीद के लिये आया-जाया करता था. एक जरूरी मीटिंग के लिये एक बार जब वो आया तो रिशेपशन के लोगों ने उसे घुसने ही नहीं दिया. लाइन में आओ. हमें जब आपके बुलाने के आदेश आयेंगे हम तो तभी आपको छोड़ पायेंगे. अब आपके लिये हम अपनी सरकारी नौकरी तो दाँव पर नहीं लगायेंगे. आपका क्या आप तो प्राइवेट में हैं. फिर बात करते करते आप क्या बनाते हो ? जब उसने कहा दवाई, तो उनका उत्साह थोड़ा ठंडा पड़ा और बोले अगली बार हमारे लिये टॉनिक, विटामिन की दवाई और गिफ्ट ले कर आना तभी पास बनेगा. इस बार तो छोड़ रहे हैं. उनका कहना था कि आप ऊपर तो इतने लाखों रुपये दे देते हो और ये ग़रीब स्वागतकक्ष के दक्ष कर्मचारी आपको दिखते ही नहीं. इतना भी ऊपर मत उड़ो. कुछ तो भूतल वालों का भी ख्याल करो. 

सार्वजनिक खरीद के माध्यम से समझो आपको सोफा खरीदना है. तो जब वो सोफा आपके चैम्बर में आयेगा तो आप कनफ्यूज हो जायेंगे कि इसे सोफा कहते हैं ? इसे सोफा क्यों कहते हैं ? और अगर ये सोफा है तो सोफे को सोफा क्यों कहते हैं ? . सार्वजनिक खरीद वाले बड़े ही स्मार्ट, दिमाग वाले, चुस्त फुर्तीले होते हैं. उन्हें सब पता होता है. वे के.बी.सी. से बहुत पहले के के.बी.सी.  हैं (कब बनेंगे करोड़पति). गज़ब की जनरल नॉलिज होती है उनकी. कहां से क्या क्या मिलेगा. मार्किट सर्वे उनकी फिंगर टिप्स पर होता है. कैसे एक ही वेंडर से तीन और कपोल-कल्पित कम्पनियों के लैटरहैड पर कोटेशन लेनी है.  जिसमें फोन न. अलग हो, पते अलग हों, स्याही-पैन अलग हों. जिस लैवल की खरीद उतनी ही पारदर्शिता रखी जाती है. साफ चमचमाती पारदर्शिता. कोल्ड ड्रिंक, ड्राई फ्रूट से शुरु हो कर इलेक्ट्रोनिक आइटम्स, विदेशी शराब, विदेश सैर, एयर टिकट, स्विस बैंक. हरि अनंत..हरि कथा अनंता की तर्ज़ पर पारदर्शिता अनंत.. पारदर्शिता अनंता और सिर्फ पारदर्शिता ही क्यों दूरदर्शिता अनंता. पहले दिल्ली का अशोक होटल रैड स्टोन का था. लालकिले के माफिक. फिर एक प्रबंध निदेशक महोदय आये उन्हें लगा कि रैड स्टोन मुग़ल काल की याद दिलाता है. मुग़ल काल क्या था ? हमारी दासता, हमारी पराधीनता का काल था. विदेशी आताताईयों का काल था. अत: उन्होंने फौरन आदेश दे कर उसे सफेद पेंट करा दिया. इसे कहते हैं दूरदर्शिता. अब सफेद है तो जल्दी जल्दी गंदा भी होगा. गंदा होगा तो साल दर साल इतने बड़े होटल को सफेद पेंट करा देने मात्र से न जाने कितने प्रबंध निदेशकों की काली कमाई का प्रबंध हो गया. 

हमारे एक अफसर की पत्नी का कहना था वह पहनना तो बहुत चाहती हैं मगर गोल्ड जूलरी उन्हें सूट नहीं करती है. हमारी फैमिली पर कर्स है अत: भैया ! लानी हो तो डायमंड जूलरी ही लाईये. और वो पसंद करने शो रूम भी जातीं थीं. वहीं पसंद करके चली आतीं थीं बाकी पचड़े सार्वजनिक खरीद... नहीं.. खरीद नहीं.. सार्वजनिक फरोख्त वाला निपटाता था. आपने देखी सुनी है कहीं इतनी पारदर्शिता. मेरा मानना ये है कि सार्वजनिक खरीद में और अधिक पारदर्शिता लाने के लिये हर विभाग को एक हैंड बुक, एक गाइड हर साल डायरी की तरह निकालनी चाहिये. जिसमें सब तफसील से दिया गया हो. पेंसिल से ले कर प्लेन तक. नाम-पते हों. किसके लिये किससे मिलना है. और अगला कहां मिलेगा. अगले का क्या रेट है और उस पर कितना डिस्काउंट बगैर हील-हुज़्ज़त के वह कर देगा. फोन न. ई. मेल, पर्सनल मोबाइल न. और इस कूपन को साथ लाने वाले को एडीशनल 5 % की छूट. 

ये टेंडर का डर किसे दिखाते हो जी. अभी दुनाली सर पर रख दी या कट्टा कनपटी पर लगा दिया तो सारी ईमानदारी का वाष्पीकरण हो जायेगा. रह जायेगा दूध का दूध पानी का पानी. पानी तो पारदर्शी होता ही है. आखिर रहीम ने भी कहा है रहिमन पानी राखिये... 

आप यक़ीन करें या न करें मेरा दावा है कि सार्वजनिक खरीद में हमारे देश में जितनी पारदर्शिता है अन्य किसी तथाकथित उन्नत देश में भी नहीं.

दरअसल अगर हम इस से ज्यादा पारदर्शिता लायेंगे तो क़ानून हमें नग्नता फैलाने के आरोप में अंदर कर देगा.



                                       

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