Ravi ki duniya

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Tuesday, November 22, 2011

व्यंग्य: गोरों का बोझ

अमेरिका के जनाब रम्सफील्ड ने कहा है कि हम ईराक में जितना जरूरी है उससे एक दिन भी ज्यादा नहीं ठहरेंगे. वाह ! वाह ! क्या स्टेट्मेंट है. क्या ईमानदारी है. साफगोई तो कोई इनसे सीखे. तभी तो इन्होने इतने सारे खुशबू वाले साबुन चला दिये हैं ताकि आप सब भी साफ सफाई रखें. वे इतने सफाई पसंद हैं कि जिस बाज़ार में आप घुसे उसकी सफाई ही कर दी. कपड़ों के बाज़ार में घुसे तो तन से कपड़े साफ. नवयौवनायें अपने अंग प्रत्यंग साफ साफ दिखाने लगीं. उन्होने कह दिया है कि अगर कपड़े पहनने ज़रूरी ही हों तो हमारे अम्रीकी ब्रांड के पहनो. क्या पैंट-कमीज़ क्या कच्छे-बनियान. तुम्हारा दर्ज़ी और उसके बाल-बच्चे गये तेल लेने. कौन झिकझिक करे. नाप देने जाओ फिटिंग दो, ट्रायल दो, डिलीवरी के लिये चक्कर लगाते फिरो. हमारे शो रूम में घुसो और काऊ बॉय बनके बाहर निकलो. आप अपने आप को कितने ही फन्ने खां समझते रहो उनकी नज़र में आप बस तीन साइज़ों में मिलते हो—रेगुलर, लार्ज, एक्स्ट्रा लार्ज. चौथी कोई कैटेगरी ही नहीं. नॉट बैड.
श्री रम्सफील्ड जी वो ही रट लगाये हैं जो सौ बरस पहले तक अंग्रेज भारतीयों के लिये कहते आये थे. इन नालायक भारतीयों को इंसान बनाना हमारी ड्यूटी है. ये वाइट्मैंस बर्डन हैं. जैसे ही ये सभ्य और ठीक हो जायेंगे हम हिंदुस्तान छोड देंगे. देख लो छोड दिया. जैसे ही उन्हें लगा कि अब आम हिंदुस्तानी अंग्रेजी जानना- बोलना चाहता है व अंग्रेजी पढने के लिये भारी रकम और डोनेशन देने को तैयार है. यहां तक कि अपनी भाषा, संस्कार व साहित्य को हेय नज़र से देखने लगा है तो उनकी ड्यूटी पूरी हो गयी. बाद में सर ना उठा सकें इसलिये वो जाते जाते देश का बंटवारा भी कर गये कि बेटा अब उलझते रहो इसी में.
हिज एक्सीलेंसी रम्स्फील्ड ने वही कहा है जो उनके दादा परदादा विश्व में अपनी दादागिरी चलाने को कहते आये हैं. बेचारा अमरीका ..उस पर कितना बोझा है. कभी वियतनाम, कभी ईराक़. आराम नही है. पूरी दुनियां की जिम्मेदारी उसके ऊपर है. सब के ठीक करना है. सब को सभ्य बनाना है ताकि सभी पिज़ा, हाट डॉग और पेप्सी का सेवन करते रहें. निसंदेह अमरीकी अपने वायदे के मुताबिक ईराक़ छोड़ देंगे.बस जरा ये तेल के कुंओं और ठेकों की बंदरबांट हो जाये. आखिर ईराक़ का पुनर्निर्माण उन्ही का तो सिर दर्द है. तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना. मैं चला जाऊंगा ...दो अश्क़ बहा लूं तो चलूं ...सड़कें चिकनी हो जायें जिन पर आयतित कारें दौड़ सकें. शॉपिंग मॉल. कम्प्लेक्स, ओल्ड एज होम, अनाथालय, स्टेट ऑफ आर्ट तकनीक के अस्पताल बन जायें. केंटकी चिकन और पिज़ा होम बन जायें. डिस्को और मायकल जैक्सन चल जायें. जिस दिन आम ईराक़ी अपनी भाषा, साहित्य और संस्कारों और कुछ भी ईराक़ी से हेट करने लग जायेगा वो चले जायेंगे. वे इंतज़ार में हैं कि कब आदाबअर्ज़ की जगह आम अमरीकी हाय कहने लग जाये. खुदा हाफिज़ की जगह ‘कैच यू लेटर’ कहने लगे. बस ! लो कट टॉप और जींस जरा चल निकलें. रीबॉक और नाइक (या कि नाइकी) लोग बाग अपना लें.अरबी, फारसी बोलने वालों को ज़ाहिल तथा अंग्रेजी बोलने वालों को ज़हीन समझा जानेलगे.फिर उनकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी. वो कह ही रहे हैं कि जितना ज़रूरी होगा उससे एक दिन भी बेसी वो ईराक़ में नहीं रहेंगे. वो वायदे के पक्के हैं. देखिये डेढ- सौ साल बाद जैसे ही काले अंग्रेज फील्ड में आये गोरे अंग्रेजों ने जहाज पकड लिया था कि नहीं. तब ? जैसे ही ईराक़ वाले अब्बा को डैड और अम्मी को मॉम कहने लगेंगे, अंकल सैम किसी और देश को आज़ाद और सभ्य बनाने को निकल पड़ेंगे. यू नो, बेचारे गोरों पर सचमुच ही बहुत बोझ है. डोंट यू थिंक सो ?






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