Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, October 28, 2010

सावधान ! तैयारी सिविल सर्विस जारी है

पहले कहावत थी कि जिसने सिविल सर्विस पास नहीं कि उसका जीवन समझो व्यर्थ ही गया. कहाँ कलेक्ट्री,कहाँ ये टुच्ची-मुच्ची नौकरियां. लोग कंप्यूटर का कितना ही बखान कर लें या फिर डॉक्टर, इंजीनीयर बन जाएँ मगर जो बात सिविल सर्विस में है आर.ए.एस., पी.सी.एस. में है वह इनमें कहाँ, तभी तो डॉक्टर,इंजीनीयर भी सिविल सर्विस की ओर भाग रहे हैं. उन्हें पता है कि सारी उम्र सीमेंट में रेत मिलाते रहें या मरीजों के बे-फ़ालतू के टेस्ट कर आते रहें तो भी इतना रौब-दाब और धन न कमा पाएंगे जितना सिविल सर्विस वाले एक पोस्टिंग में पीट लेते हैं. ससुराल में,सोसायटी में दबदबा अलग.

 
जैसे पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं वैसे ही अपने राम की हायर सेकंडरी में दो बार फेल होने पर उज्जवल भविष्य की तस्वीर साफ़ हो गयी थी.मैंने गाना शुरू कर दिया था, “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” . . इधर शहर के एक थके हुए कॉलेज से बी.ए. पास उधर मैंने घर में डिक्लेयर कर दिया “मैं तो आई.ए.एस. बनूँगा “ सुनते ही मेरे पिता ने मुझे गले से लगा लिया, बेटा किसका है ? माँ भाव विभोर होकर मुझ से लिपट गयीं और उन्होंने तुरंत सवा पांच रुपये प्रसाद को दिए . भाई बहन मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं दूसरे ग्रह से उतरा हूँ. मैंने एक दर्जन खाली रजिस्टरों की फरमायश करी जो पिताजी अगले दिन ही दफ्तर से उठा लाए. रजिस्टरों पर सुन्दर कवर चढ़ाये गए और रंग-बिरंगे पैनों से उन पर सब्जेक्ट, इंडेक्स, पेज नंबर वगैरा लिखे गए. उधर माताजी पिताजी ने दूध वाले से एक किलो दूध और बढ़ा दिया था.क्योंकि अब दिमाग की कसरत चालू हो रही थी. कुश्ती हो या आई.ए.एस, दूध की खपत कॉमन है. धोबी,दुकानदार, सब्जीवाले,डाकिये आदि सबको ओफिसियली बता दिया गया था कि हमारा रवि आई.ए.एस. दे रहा है, वे ज़रा उसके कपड़ों पर अच्छी इस्त्री किया करें. बेहतर सौदा दें, हरी सब्जियां दें, चिट्ठी ज़रा जल्दी लाया करें, बार बार कॉल बेल न बजाया करें बच्चे को डिस्टर्ब होता है, रिश्तेदारों में सभी को लिस्ट बना कर खबर करा दी गयी थी ताकि कोई छूट न जाये. पिताजी को एक साथ पचास लिफ़ाफ़े डाक में डालने जाता देख एक दिन मैंने पूछा तो माताजी ने पुलकित होकर बताया कि अपने दोस्तों को, रिश्तेदारों को,और कुछ उन रिश्तेदारों को जो अपने आगे हमें कुछ समझते ही न थे और हमारे घर झांकते भी न थे को खबर की गयी है कि हमारा लड़का आई.ए.एस. दे रहा है. इसलिए दिल्ली आकार उसका ध्यान न बंटाएं.



मैंने अपने छोटे भाई को ताकीद कर दी थी कि आई.ए.एस. का विज्ञापन आने पर मुझे इत्तिला कर दे, कारण कि एक तो मुझे अपनी राजभाषा से इतना प्रेम है कि अंग्रेजी के अखबार में मैं सिवाय फोटो के और कुछ ज्यादा देखना-पढ़ना पसंद नहीं करता हूँ. दूसरे मैं तो तैयारी में वैसे भी इतना व्यस्त हो जाऊंगा कि मुझे दीन-दुनिया की फिर खबर कहाँ होगी. ऐसा सुना है कि मैच फिक्सिंग से पहले दिमागी कंसंट्रेशन के लिए क्रिकेटर च्युइंगम चबाते थे. मैंने भी ट्राई की मगर कोई मज़ा नहीं आया. फिर किसी ने मुझे समझाया, आई.ए.एस. का क्रिकेटरों से क्या मुकाबला, ये सब तो दसवीं फेल या ड्रॉप आउट टाइप होते हैं. बस मीडिया और मॉडर्न बेवकूफ लड़कियों के चलते ये स्टार बन जाते हैं. उस दिन से मैंने क्रिकेट मैच देखना भी बंद कर दिया हालांकि मुझे बहुत पसंद था.



ज़र्दे वाला पान और पान मसाले पर बात ठहरी. मैंने दोनों का खूब सेवन करना शुरू कर दिया. रात-बिरात में अपने पिताजी को भी पान लाने भेज देता. मुझे भला फुर्सत कहाँ, जिंदगी और मौत का सवाल था. मेरी माँ रात में उठ उठ कर मुझे चाय बना के पिलाती. घर में सभी दबे पाँव चलते,धीमी आवाज में बात करते. कुछ सस्ती किस्म की फ़िल्मी पत्रिकाएं जिनको पढ़ने पर पिताजी ने कई बार मेरी ठुकाई की थी,अब नियमित आने लगीं थीं. उसके दो कारण एक तो आई.ए.एस. वालों का कोई भरोसा नहीं कहाँ से क्या पूछ लें. दूसरे, बेहद पढ़ाई के बाद लाइट रीडिंग भी मस्तिष्क के लिए जरूरी है, ये बात पिताजी अपने ऑफिस में कहीं सुन कर आये थे. अब मेरी फरमायश की चीज़ें घर पर बनने लगीं थीं. माँ पूछतीं, बेटे आज क्या खाने को मन कर रहा है. मैंने जी भर कर अपनी मनपसंद भिन्डी खायी और बाकी घर वालों की नाक में दम कर दिया. घर में दूध,दही,मक्खन,फल,पान-मसाला, बॉर्नवीटा, च्यवनप्राश, बादाम आदि सब पर्याप्त रूप से स्टॉक कर दिया गए थे और ताला लगा दिया गया था. जिसकी एक चाबी मेरे पास और एक माताजी के पास थी. माताजी दूध की सारी मलाई निकाल कर मेरे लिए रख देती. मेरे भाई-बहन टापते रह जाते. थोड़े दिनों में उन्हें आदत हो गयी और किसी के गिलास में अगर गलती से भी मलाई चली जाती तो वह माताजी को रिफंड कर देता. चैन की छन रही थी. कल तक का नाकारा, नालायक जिसके भविष्य के बारे में पिताजी आश्वस्त थे कि यह जूता पॉलिश करेगा या सायकल का पंक्चर लगायेगा. वह वी.आई.पी. हो गया था. साला मैं तो साहब बन गया.



और फिर जिसका डर था वही बात हो गयी. आई.ए.एस का विज्ञापन निकल गया. मेरा छोटा भाई जिसे मैंने सिर्फ विज्ञापन देखने की ड्यूटी दी थी वह जोश जोश में फॉर्म भी ले आया. फॉर्म पढ़ कर मुझे चक्कर आने लगे. फॉर्म समझ में नहीं आता था. जितना पढता उतना कन्फ्यूज हो जाता. कहने को फॉर्म द्विभाषीथा मगर इसकी हिंदी कौन अंग्रेजी से कम थी. कहाँ से लाते हैं ये हिंदी के शब्द, ये कौन प्रदेश की भाषा है जी. जो अंग्रजी से भी अधिक कठिन है.



जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो इंसान ईश्वर की शरण में जाता है. मैंने भी माता-पिता को अपना फैसला सुना दिया कि मैं फॉर्म भरने से पहले माता के दर्शन करना चाहता हूँ. सब गदगद हो गए. अब किस में दम है को मना करे और पाप का भागीदार बने.बस फिर क्या था, हम सब दोस्त-यार प्क्निक कम दशन पर निकल पड़े.बड़ा मजा आया. माताजी ने हाथ खोल कर पैसे दिए थे. इसके बाद तो जब मेरा मं उचटता, मैं कहता, ‘माता के जाना है, माता ने बुलाया है’ . बस दूसरे दिन रवानगी हो जाती.



जैसे तैसे फॉर्म भरने के बाद मेरी ऐश का दूसरा फेज चालू हुआ. मैंने दिखाने को अब तो एक पुरानी जनरल नॉलेज की किताब भी खरीद ली थी.बाकी विषयों के लिए मैंने कह दिया था आई.ए.एस. की किताबें कोई खेल-खिलौना या मखौल नहीं हती हैं. अव्वल तो मिलती ही नहीं हैं, मिलती हैं तो बहुत महंगी. अतः मैं उन्हें लाइब्रेरी में जा कर ही पढूंगा. माता-पिता फिर निहाल हो गए कि मुझे उनका और उनके खर्चे का कितना ख्याल है. सब को बताते फिरते कि रवि जी लाइब्रेरी गए हैं. कलेक्टर साब के इज्ज़त से बुलाना चाहिए. फिर अगर घर वाले ही इज्ज़त नहीं करेंगे तो बाहर वाले क्या ख़ाक करेंगे. रोज शाम को मित्र लोगों की टोली निकल पड़ती कभी फिल्म,कभी मटरगश्ती,कभी इश्क बढ़ा मजा आ रहा था. मैं सोचता था जिस सर्विस की तैयारी में ही इतना मजा है सर्विस मिलने का बाद क्या होगा.? हमारे घर में पहले ही कोई आता-जाता ना था, अब तो खबर और करा दी गयी थी साथ ही माता-पिता जब भी पास-पड़ोस या किसी समारोह में जाते तो कोई मेरे लिए पूछता या न पूछता वे सबको सुनाते हुए यह कहना नहीं भूलते, “ ज़रा जल्दी जाना है, रवि जी को आई.ए.एस. की करता छोड़ आये हैं. रवि जी तो लाइब्रेरी गए हैं आई.ए.एस के सिलसिले में”



हमारा एक दोस्त मेरठ के पास रहता था. उसका वहां फ़ार्म हाउस था. उसने बताया कि वहां ऐशो-आराम की सभी सुविधाएँ हैं. बस मैंने घर वालों से कह दिया कि मैं मेरठ सेंटर से फॉर्म भरूँगा, कारण कि सरकार ने डिसाइड किया है कि मेरठ से आई.ए.एस. बहुत कम हैं इसलिए अबकी बार मेरठ सेंटर से लोगों को ज्यादा से ज्यादा लेना है. मेरे माता-पिता तो सुन कर खुशी से पागल हो गए और उन्होंने अपने एक परिचित के यहाँ मेरठ में मेरा इंतज़ाम कर दिया. वह परिचित बड़े ही धार्मिक और वेजिटेरियन थे. मेरा मन मुर्गा खाने को कर रहा था. मैंने तुरंत माता-पिता को दिल्ली फोन लगाया और उनकी शिकायत कर दी जैसे वेजिटेरियन न हों कोई कच्छा-बनियान गिरोह वाले हों. सुनते ही मेरे बड़े भाई दिल्ली से स्कूटर पर पका-पकाया मुर्गा मुझे मेरठ देने ए. वे नहीं चाहते थे कि इम्तहान से ठीक पहले मेरा मन चिकन जैसी टुच्ची चीज के चलते विचलित हो जाये. कुछ वो ये भी नहीं चाहते थे कि मैं कैसे भी अपने फेल होने का इलज़ाम उनके या मुर्गे के सर लगा पाऊँ. इतना बड़ा इलज़ाम लेकर वो नरक में न जाना चाहते थे. एक बार क्लर्की के इम्तहान में अपने फेल होने का इलज़ाम मैं बिजली पर लगाया आया था और साफ़ बच निकला था. क्या करता, बिजली नहीं थी. बिजली नहीं थी तो लिफ्ट नहीं चल रही थी. लिफ्ट नहीं चल रही थी तो मैं टाइपराईटर सीढ़ियों से उठाये उठाये सेकेण्ड फ्लोर पर ले गया. बस बांह जाम हो गयी. हाथ अकड गए. उंगलियां सुन्न पड़ गयीं. टाइप कर ही नहीं पाया. और मैं क्या कोई भी नहीं कर पाया.



राम-राम करके इम्तहान का दिन भी आ गया. सुबह सुबह फ्रेश हो कर मैं स्कूटर पर इम्तहान देने निकला. स्कूटर मैंने बड़े भैया से जब मुर्गा देने आये थे तो झटक लिया था. मन बिलकुल शांत और साफ़ था. कोई तैयारी नहीं थी. कुछ याद किया ही ना था जिसे भूलने की टेंशन होती. प्रीलिमनरी इम्तहान की एक और विशेषता है, ना तो वे प्रश्न पत्र आपको देते हैं ताकि कोई बाद में आपसे पूछ कर क्रॉस चैक ना कर पाए. दूसरे, सारे सवाल ऑब्जेक्टिव टाइप होते हैं. बस राईट का निशान लगाते जाओ. दिमाग पर कोई जोर नहीं पड़ता. दरअसल सवाल पढ़ने की जहमत किये बिना ही मैं राईट का निशान जहाँ-तहां लगा कर निकल आया. सवाल पढ़ कर ही कौन सा तीर मार लेना था. अपना रिजल्ट तो बखूबी मालूम था.फिर भी माता-पिता को घर जाकर “मैं कैसे मरते-मरते बचा . . .” की कहानी पूरे इफेक्ट के साथ सुना दी. “मैं सेंटर जा रहा था, स्कूटर मैं बहुत ठीक ठीक और धीरे धीरे चला रहा था कि अचानक एक बुढिया सड़क के बीचों-बीच न जाने कहाँ से आकर खड़ी हो गयी. लाख बचाते बचाते भी मेरे स्कूटर से टकरा गयी. मैं गिर गया. बुढिया गायब हो गयी. अब तुम्ही बताओ मम्मी ऐसी मनोदशा में मैं कितना नर्वस हो गया. इम्तहान क्या ख़ाक देता, फिर भी दे आया हूँ. पर्चा अच्छा हुआ है. देखिये क्या होता है. रिजल्ट तो साल के आखिर में आयेगा लेकिन मेन की तैयारी तो अभी से करनी है”. माताजी मेरी कहानी सुन कर रुआंसी हो उठीं और उन्होंने मुझे गोद में छुपा लिया. उस बुढिया को हज़ार हज़ार बार कोसते हुए वे मेरे लिए हल्दी मिला दूध लेने चलीं गयीं.मुझे यह डर था कि कोई यह ना टोक दे कि भैया ‘नॉलिज’ क्या डोलची में दूध की तरह ले जा रहे थे जो कि बुढिया के टकराने से सड़क पर फ़ैल गयी. मगर हमारी कहानी के आगे बड़े बड़े भूतनाथ फेल हैं.



मैं सोचता हूँ अगली बार इलज़ाम किस पर डालूं. बिजली..बुढिया...बारिश...बॉलीवुड... अभी तो ज़ैड तक बाकी है.














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