Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Friday, February 12, 2010

मैं असंतुष्ट हूँ

(असंतुष्ट होना/रहना एक सहज मानवीय प्रवृति है या फिर एक फॅशन स्टेटमेंट आप खुद निर्णय करें. अगर आप स्वयं असंतुष्ट नहीं हैं तो आप असंतुष्टों को जानते ज़रूर होंगे, एक ढूंढो हज़ार.. )


जैसे झूलों का मौसम आता है. जैसे एक उम्र में हम सब कवि हो जाते हैं. जैसे नौजवानी में हम में से अधिकतर मोहब्बत के मारे देवर दीवाने हो जाते हैं, उसी तरह आजकल असंतुष्ट होने का मौसम चल रहा है.


नि सुल्ताना रे ! असंतुष्ट होने का मौसम आया


हो हाय रे ! हरी हरी छाया


असंतुष्ट एक ऐसा वामपंथी है जिसे अपने नेता से, व्यवस्था से, पत्नी से,परिवेश से यहाँ तक की खुद से भी शिकायत रहती है.मेरे साथ कॉलेज में एक लड़का पढ़ता था. क्लास् कट करके हम फिल्म जाते तो वह क्लास में जाने की जिद करता, हम सब कोक (कोककोला) पीते तो वह चाय, हम चाय पीते तो वह सिगरेट. वह असंतुष्ट था. बाद में उसकी शादी हो गयी. हम सब ने सोचा उसका असंतोष काफी हद तक ख़त्म हो जायगा या फिर चेनेलाइज हो जायेगा पर वह बैंक में अफसर हो गया. सुना है अब हर छह महीने बाद वेतन बढ़वाने के लिए वह बैंक अफसरों की हड़ताल करवाता है.
आजकल असंतुष्ट होना कितना सुलभ हो गया है. फैशन ही चल निकली है. संतुष्ट दकियानूसी हो गया है. आउट ऑफ फैशन. असंतुष्ट सर्व-व्यापक हैं. मेरे घर के कॉकरोच असंतुष्ट हैं. बौराये से घर में चक्कर लगाते हैं. कारण पता नहीं. उन्हें शायद किचन में बनने वाले परांठे पसंद नहीं, वे पिज़ा चाहते हैं. छिपकली असंतुष्ट हैं. उसे दीवारों के रंग पसंद नहीं. इन पेंटों में उसका वाला यलो जो नहीं है. मेरी पत्नी असंतुष्ट है कि मेरी रेंक के अन्य लोगों के घरों में कार, लेटैस्ट वाशिंग मशीन और आभूषण बनते-पिघलते रहते हैं और एक मैं नाकारा हूँ जो बस कोरी तनख्वाह को ही ‘ज़िंदगी’ समझने को बहिष्कृत है.
मेरी बाई भी असंतुष्ट है. उसका कहना है कि मेरा टी.वी. ब्लैक एंड व्हाइट क्यों है रंगीन क्यों नहीं है और उसके हिस्से में हमेशा पुरानी फैशन के कपड़े ही क्यों आते हैं.
दरअसल असंतुष्ट होना एक ‘स्टेट ऑफ माइंड’ है. बिल्कुल उसी तरह जैसे संतुष्ट होना.ज्ञानी लोग कह गए हैं कि संतुष्ट होना तो मृत्यु का पर्याय है. अतः मित्र लोग अक्सर असंतुष्ट ही रहते हैं. यह उनके जीवित और जागरूक होने का प्रतीक है. ब्लॉक वाला जोन, ज़ोन वाला ज़िला स्तर का और ज़िला वाला राज्य स्तर का नेता बनना चाहता है. जो राष्ट्रीय स्तर के हैं वे अंतर्राष्ट्रीय होना चाहते हैं. कुछ तो इस दिशा में अनेक किस्म किस्म की बॉडीज के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष भी बन जाते हैं. इस दिशा में पुरस्कारों की खरीद-फरोख्त भी करते रहते हैं. असंतुष्टों की गिजा है अख़बार और चमचे, जो इनके असंतोष को गाहे-बगाहे सींचते रहते हैं. कभी अख़बार में खबर छापकर और कभी न छापकर. असंतुष्टों के पास विषयों की कभी कोई कमी नहीं रहती. मसलन आप ये विरोध कर सकते हैं कि मौजूदा सरकार गरीबों का ख्याल ही नहीं कर रही. या कोटा,परमिट, लाइसेंस सिर्फ पूंजीपतियों को ही क्यों दिये जा रहे हैं. (वैसे हम आपको मिल भी जायेंगे तो हम करेंगे क्या ?) मज़लूमों पर ज़ुल्म की इंतिहा हो गयी है. सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. और ओज़ोन परत बचाने को कुछ नहीं कर रही है. इतनी कारें क्यों हो गयीं है कि साइकल चलाने की तो दूर खड़ी करने को भी जगह नहीं है.
मेरे बच्चे, मैं समझता था, बहुत संतुष्ट होंगे कारण कि उनका बचपन मेरे बचपन से ज्यादा सुविधायुक्त है. मैं रेडियो सिलोन और चित्रहार तक सीमित था. इनके पास ज़ी, एम.,वी.,स्टार न जाने क्या क्या है. वह भी रिमोट नियंत्रित. मगर ऐसा नहीं है. वे भी असंतुष्ट हैं. इनका कहना है कि मैं उन्हें लेट नाइट फिल्में क्यों नहीं देखने देता हूँ. और क्यों मैं उनके आधी रात के बाद घर लौटने पर भी जागा रहता हूँ . वो मेरे ड्रेस सेंस और हेयर कट पर भी कोई अच्छी राय नहीं रखते हैं मगर झेल रहे हैं. हैं असंतुष्ट ही.
एक फिल्मी गीतकार मित्र कह रहे थे समझ नहीं आता जनता क्या चाहती है. चोली के पीछे से लेकर सरकाय ले खटिया तक तो आन पहुँचे हैं जनता है कि “..मोर.. मोर” की रट लगाये है. नायिका असंतुष्ट है कि निर्देशक ने तीन घंटे में से पौने तीन घंटे उसके तीन कपड़ों में से दो उतरवा ही देने हैं तो फिर उसे फिल्म में कपड़े पहनाए ही क्यूँ जाते हैं.
मेरी पड़ोसन असंतुष्ट है. उसके असंतुष्ट होने के अनेक कारण हैं यथा हम उस से क्यों बोलते हैं, बोलते हैं तो कम क्यों बोलते हैं या जैसे बोलते हैं वैसे क्यों बोलते हैं. हमारा कुत्ता उन्हें देख कर भौंकता क्यों है या फिर वह इतने धीरे-धीरे और कम देर को ही पूंछ क्यों हिलाता है.
असंतुष्टों के गुट में सभी संतुष्ट हों ऐसा नहीं है. उनमें भी असंतुष्ट हो गए हैं. क्योंकि जिसकी प्रकृति असंतोष की है उसे कल कहाँ. वे असंतुष्टों की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट हैं. जैसे एक दल की सरकार के जल्दी गिरने पर लोग कहते सुने जाते थे कि अपोजीशन वाले पोजीशन में आने के बाद भी अपने को अपोजीशन में समझते रहे व तदानुसार व्यवहार ही अंततः उनके पतन का कारण बना. मगर इस से क्या. परम्परागत नौकरशाही में ‘वंस ए सर, इज ऑल्वेज़ ए सर’ जिसे एक बार सर कह दिया वह हमेशा ‘सर’ ही रहता है. अतः असंतुष्ट तो आखिरी दम तक असंतुष्ट ही रहता है. सरकार तो आनी जानी चीज़ है. अपनी आन बनी रहनी चाहिये.
पथकर था तो पथिक असंतुष्ट थे. पथकर हटाया तो चुंगीवाले असंतुष्ट हो गए और उन्होने संतुष्ट होने के नायाब तरीके निकाल लिए. जैसे प्रदूषण मापक यंत्र,कागजात पूरे नहीं है का मुखबन्द. आतंकवाद के नाम पर थाने में पूरी बस से पूछताछ. और ट्रक में क्षमता से अधिक लोडिंग की, सारा सामान उतार कर जाँच. हमारे दफ़्तर के एक इंजीनियर साथी ने अपने बच्चे का लाखों का डोनेशन दे कर इंजीन्यरिंग में दाखिला दिलाया है. वे भी असंतुष्ट थे कि जहाँ बड़े लड़के का हज़ारों में ही काम हो गया था वहीं छोटे के लिए लाखों खर्चने पड़े हैं. ऊपर से सुनते हैं कि सरकार ठेकेदारी प्रथा को समाप्त करना चाहती है.
लोकतंत्र में लोक निर्माण विभाग की विशेष भूमिका रहती है. लोक निर्माण विभाग बिना ठेकेदार और कुछ भी कर ले निर्माण नहीं कर सकता है. ठेकेदार के सहारे ही लोक निर्माण विभाग के अफसरों का लोक परलोक सुधरता है. दरअसल लोकतंत्र ठेकेदारों का,ठेकेदारों द्वारा, ठेकेदारों के लिए शासन है. अब भाई वो टाइम और था कि कैदियों ने पिरामिड के पिरामिड खड़े कर दिये थे.आजकल के राजनीतिक और आर्थिक कैदी तो वी.आइ.पी. हो गए हैं. अतः काम तो ठेकेदारों ने ही करना हुआ न. अब ठेकेदार कैसा है, देशी है या विदेशी है ये सब डिटेल्स तो आपने देखनी है न . सरकार के पास कहाँ ‘टैम’ है ये सब छोटी छोटी बातें देखती फिरे.
पहले पार्टी में अनुशासन बहुत हुआ करता था. एक को टिकट मिलता था तो बाकी सब कार्यकर्ता बनकर ईमानदारी से उसका प्रचार करते थे. अब एक को टिकट मिलते ही दर्जनों असंतुष्ट हो उसके दुश्मन बन जाते हैं और अंदर ही अंदर उसकी जड़ें काटने लगते हैं.अगला अगर चुनाव जीत भी जाये तो दूसरी किस्म का असंतोष उभरने लगता है.बहुधा देखा गया है कि मंत्रिमण्डल के शपथ लेने के तुरंत बाद संबंधित प्रदेश की राजधानी और दिल्ली में असंतुष्टों का जमावड़ा हो जाता है. पीछे सूरजकुंड और लालकिला असंतुष्टों में अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं. हमारे समय में असंतुष्ट होने के लिए ज्यादा खर्चा नहीं करना पड़ता था. कॉफी हाउस में जाकर ही हम लोग असंतुष्ट होने का गौरव प्राप्त कर लेते थे. अब असंतुष्ट होना बहुत विलासितापूर्ण हो गया है. अपनी-अपनी हैसियत अनुसार नाइट क्लब से बोट क्लब तक असंतुष्ट प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं.


असंतुष्ट ही असंतुष्ट. एक बार मिल तो लें
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(व्यंग्य संग्रह ‘मिस रिश्वत’ 1995 से )

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