Ravi ki duniya

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Tuesday, January 12, 2010

आओ आओ मंथन करें



 सिने अभिनेता महमूद जी की एक कॉमेडी फिल्म थी ‘भूत बंगला'। उसमें किशोर दा का एक गाना था आओ ..आओ ..आओ ! टि्‌वस्ट करें ... जिन्दगी है यही ... जाग उठा ये मौसम''। बस कुछ इसी तर्ज पर आजकल आत्म मंथन का मौसम चल निकला है। जबसे हमारी क्रिकेट टीम वर्ल्ड कप से बाहर है। सभी एक दूसरे को बिन मांगी सलाह देते फिर रहे हैं कि क्रिकेट टीम आत्म मंथन करे। टीम कहती है कि कोच आत्म मंथन करे। कोच कहता है कि सीनियर खिलाड़ी आत्म मंथन करें। वो कहते हैं कि चयनकर्ता आत्म मंथन करें। गो कि पूरा का पूरा लश्कर आत्म मंथन करने निकल पड़ा है। अब यह आत्म मंथन कोई आम आत्म मंथन तो है नहीं जो मेरे जैसा आदमी टॉयलेट सीट के ऊपर या शॉवर के नीचे या फिर बहुधा तो खाट पर पड़े पड़े ही कर लेता है। यह विशिष्ट प्रकार का आत्म मंथन है। बस यूँ समझ लीजिए कि आत्म मंथन में ही करोड़ों फुंक जाने हैं। अब सब राहुल द्रविड़ तो हैं नहीं कि कोवलम बीच' पर सस्ते मे ही आत्म मंथन निपटा आएं। हमारी टीम में तो इस काम के लिए किसी को लन्दन सूट करता है, किसी को अमरीका ! अब अगर कायदे का आत्म मंथन कराना है तो रुपयों का मुंह क्या ताकना। हाँ, अगर चालू किस्म का मंथन कराना है तो वो तो कहीं भी हो जाएगा। वानखेड़े स्टेडियम' में भी हो सकता है। मगर उसके रिजल्ट की उतनी गारंटी नहीं है। भई ! जितनी शक्कर डालोगे उतना ही मीठा तो आत्म मंथन निकल के आएगा।


मोटा मोटी ये दर्शक ही हार के लिए जिम्मेदार हैं। न जाने क्यों उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं। और काम ही नहीं, खाली बैठे। खुद से तो पापड़ नहीं टूटता और चाहते हैं कि क्रिकेट टीम श्रीलंका को हरा दे (हम कोई राम हैं)। बांग्लादेश को रौंद दें (हम कोई टिक्काखान हैं)। गो कि पूरी दुनियां को हरा दें। रे बावलो ! जो कुएँ (देश) में है वो ही तो लोटे (टीम) में होगा। वैसे एक बात बताओ मंथन से मिलता क्या है.सुना है एक बार देवताओं और असुरों ने समुंद्र मंथन किया था तो अमृत निकला था. वो सतयुग था ये कलियुग है. अब ज्यादा से ज्यादा मिलावटी दूध का मंथन होता है जिसमें मक्खन की प्राप्ति होती है. सारा खेल मक्खन का ही तो है, चाहे खिलाड़ी हो चाहे चयनकर्ता,चाहे विज्ञापनबाज हों या सट्टेबाज.सब्बे सत्ता मक्खन चखंतु.


दूसरा मंथन उल्टा प्रदेश उर्फ उत्तम प्रदेश में चल निकला है ( जिसमें है दम... यहां ज़ुर्म है कम). अब ये छोटे मोटे निठारी, मेरठ, कानपुर दंगे, बलात्कार, चोरी, डकैती की न किया करें. ये कोई साज़िश लगती है. उत्तम प्रदेश के दम को दमा दिखाने की. मनचलों ने तो यहां तक कहना शुरु कर दिया है :


उत्तम प्रदेश को है दमा


ज़ुर्म सब जगह है यहां



सब जगह एक मंथन चल पड़ा है कि मेरा प्रदेश उत्तम प्रदेश है कि नहीं जुर्म यहाँ कम है या नहीं। अतः सभी व्यस्त हैं और मंथन के सभी उपकरण नारेबाजी से लेकर विज्ञापनबाजी तक की सी.डी. को सीढ़ी बना रहे हैं।
एक तीसरे प्रकार के आत्म मंथन का आव्हान हाल ही में चुनाव में हार के बाद उछला है। सरकार का कहना है कि ये सरकार की हार है ही नहीं। आहा ! कैसी अलौकिक कल्पना है। जो मार रहा है वो कृष्ण...जो मर रहा है वो कृष्ण। यह हार सरकार की ??? नहीं है। फिर किस की है। यह सवाल उठता है। हम कह सकते हैं कि यह मतदाता की हार है। पार्टी अध्यक्ष की हार है। मंत्री की हार है। प्रदेश की हार है। देश की हार है. साहब हार के लिए सरकार कैसे जिम्मेवार हो । वाह जी वाह ! जिताए तो जनता जिम्मेवार। हारे तो सरकार। महाराज ! हार के लिए व्यवस्था, व्यवस्था के लिए संविधान, संविधान के लिए संविधान सभा, और संविधान सभा के सदस्यों के लिए मतदाता जिम्मेवार हैं जिसने सन्‌ सैंतालीस में उन्हें चुनकर भेजा था। अतः सौ बातों की एक बात। मूषकः मूषकः पुनः। अर्थात्‌ नालायक, अनपढ़, नाशुक्रा, नादान मतदाता जिम्मेवार है। हाँ जीत की बात और है। जीत के लिए तो मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष...लम्बी सूची है जिम्मेवारी लेने को टूट पड़ने वालों की। सच ही तो कहा है सफलता के अनेक पिता होते हैं। यह तो असफलता ही है जो बेचारी अनाथ होती है''।




'मेरी उम्र भर की वफाओं का


दिया है उन्होंने ये ????


मेरा जिक्र सुनकर कहते हैं


कहीं सुना है ये नाम''






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