Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, January 28, 2010

तिहाड़ क्लब

बेल तो बहुत हैं मगर अंगूर की बेल की बात और है. उसी तरह जेल तो बहुत हैं मगर तिहाड़ जेल की बात ही निराली है. तिहाड़ का नाम तिहाड़ कैसे पड़ा पता नहीं मगर एक बात निश्चित है की रखनेवाले ने बड़े बेल तो बहुत हैं मगर अंगूर की बेल की बात और है. उसी तरह जेल तो बहुत हैं मगर तिहाड़ जेल की बात ही निराली है. तिहाड़ का नाम तिहाड़ कैसे पड़ा पता नहीं मगर एक बात निश्चित है की रखनेवाले ने बड़े सोच-समझ कर नाम रखा है-- तिहाड़ अर्थात ऐसा स्थान जहाँ हाड गोढ़ तोड़े जाते हों. ऐसा स्थान जहाँ आपके हाड मांस की मालिश की जाए. तिहाड़ को आज जेलों में वही स्थान प्राप्त है जो फूलों में गुलाब को और पर्वतों में हिमालय पहाड़ को है. सुना है अन्य जेलों के क़ैदी तिहाड़ को लेकर हीन ग्रन्थि (इंफीरिओरिटी काम्प्लेक्स ) से ग्रसित पाये गए हैं. सब की दिली ख्वाहिश है की एक बार तिहाड़ हो आते तो जीवन की साध पूरी जाती. पीछे सुना है की न केवल क़ैदी बल्कि अब तो राजनीतिज्ञों, बैंक अफसरों, जेलर और पुलिस के बड़े बड़े अफसरों (पुलिस में छोटे अफसर होते ही नहीं ) में भी तिहाड़ जाने की होड़ सी लगी है.
तिहाड़ को ये संभ्रांत दर्ज़ा और ख्याति यूँ ही एक रात में ही नहीं मिल गयी है. इसके पीछे पुलिस,प्रशासन तथा सार्वाधिक कैदियों का हाथ है. सब ने दिन रात एक करके बरसों के अथक परिश्रम के बाद तिहाड़ को आज इस ईर्ष्याजनक स्थिति में पहुँचाया है.
जानकार लोग बताते हैं की यह निश्चय ही मॉडल जेल है.यहाँ वे सब चीज़ें बड़ी आसानी से मुहय्या हैं जो एक बार को ओपन मार्केट में भी मुश्किल से हासिल होंगी. काफी आइटम हैं. अब फहरिश्त बनाने निकले तो बहुत लंबी बनेगी और मुमकिन है जेल वाले बुरा मान जायें (कोई आइटम छूट गया तो ) अतः मैं यहाँ इस से बच रहा हूँ.
तिहाड़ का चस्का कुछ ऐसा है की अक्सर मुजरिम जज साबव से स्पेशल फरमाइश कर तिहाड़ ही आना चाहते हैं. वे कहते हैं सज़ा भले साल दो साल और बदगा दो मगर गरीब परवर एक बार तिहाड़ घुमा दो. ऐसा पाया गया है की यहाँ के खान-पान में कुछ ऐसी तासीर है की उचक्के बॉस बनकर निकलते हैं और बॉस लोग बाहर आते ही डॉन बन जाते हैं, डॉन लोग अव्वल तो तिहाड़ आते नहीं लेकिन कभी अगर तकनीकी कारण से आना भी पड़े तो खुदा गवाह है की जीतने भी डॉन तिहाड़ गए हैं वे सब मल्टी-नेशनल मेरा मतलब है इंटेरनेशनल हो गए हैं. सोचिए हाइर स्टडीज़ के लिए वहाँ की आब-ओ-हवा कितनी मुफीद है.
कई बार लोग बोर हो जाते हैं तो बाहर टहलने भी आ जाते हैं और घूम फिर कर लौट लेते हैं. कुछ तो घूमते-घूमते लंबे भी निकाल जाते हैं और बाद में उन्हें गोवा आदि के समुंदरी तटों पाया जाता है. मेरा सुझाव है की तिहाड़ में अंदर ही कृत्रिम झील,पर्वत और समुंदर तट बनाया जाए जहाँ नौका-विहार, स्केटिंग, स्कीइंग,फ़िशिंग आदि की सुविधाएँ सुलभ कराई जायें. यह देखा गया है की प्रकृति के नज़दीक रहने से मन पर बड़ा असर पड़ता है और दिमाग में नयी नयी योजमाओन के विचार आते हैं.
कैदियों से पत्थर तुदवाना चक्की चलवाना, आउटडेटेड हो गया है यह बुरजूआ मनोवृति थी. अब क़ैदी केवल हिन्दी फिल्मों में पत्थर तोड़ते या चक्की पीसते दिखाई देते हैं वह भी तब जब वे भागने की तैयारी में होते हैं या फिर उन्हें कोई दर्द भरा गीत गाना होता है. अमूमन क़ैदी ज़िंदगी के मुक्तलफ़ पहलू पर तबादला-ए-ख्याल में मशगूल रहते हैं.और ऐसी फलसफ़ाई बहस का
सिलसिला अक्सर सर फूटने या एक-आध की जान लेकर ख़त्म होता है. कैदियों से कटाई, बुनाई, सफाई आदि कराना भी आउट ऑफ फॅशन हो गया है. अभी हाल तक कैदियों में सत्संग कीर्तन का चलन भी पाया जाता था. देखने में आया है की उनकी भक्ति (इश्क़) पहले से ही पर्याप्त रूप से जाग्रत होतो है. हम सभी जानते हैं की इश्क़-ए-हकीकी (ईश्वर प्रेम) के लिए रास्ता इश्क़-ए-मजाज़ी( भौतिक प्रेम) के चौराहे से ही जाता है.
                                   हम हुए, तुम हुए, मीर हुए

                                  सब उनकी जुल्फों के असीर(क़ैदी) हुए 

अक्सर यह सुनने में आता है कि तिहाड़ में उसकी क्षमता से अधिक क़ैदी भर लिए गए हैं. यह तिहाड़ की लोकप्रियता को तो इंगित करता ही है साथ भी इस बात का सूचक भी है कि जैसा कुएं में होगा वैसा ही तो लोटे में होगा. अर्थात जब क्षमता से अधिक लोग हमारी, सोसाइटी, शहर और देश सब जगह हैं तो अकेले तिहाड़ की बदनामी क्यों. फिर भी सरकार को कुछ करना चाहिए. और कुछ नहीं तो पर्यावरण और आकर्षण की दृष्टि से ही या तो तिहाड़ की  ब्रांचे खुलवा दें या फिर वर्तमान परिसर में आस पास की कॉलोनी मिला दी जायें. इन कॉलोनी के निवासियों को विकल्प रहेगा कि वे चाहें तो मुख्य परिसर में शिफ्ट कर जायें  या वहीं बने रहें.
कैदियों को अब न केवल पत्र-पत्रिकाएँ, बेस्ट सेलर , संगीत, टी.वी., डी.वी.डी. मोबाइल,फेक्स, एस.टी.डी., आई.एस.डी. की सुविधाएँ हैं बल्कि वे स्वाद बदलने के लिए अ ला कार्ते ( फी नग के हिसाब से ) डिनर, लंच ले सकते हैं. मसलन कह सकते हैं भई कल चिकन दो प्याज़ा ज्यादा हैवी हो गया था अतः आज केवल पिज़्ज़ा लेंगे और शाम को हेमबरगर या चाइनिज
कबीरदास ने कहा है कि जीवन इस तन का क़ैदी है और सारी उम्र आत्मा, परमात्मा से मिलने को छटपटाती रहती है. इसी विचारधारा के अंतर्गत कैदियों को मुहब्बत करने, पत्र-मित्र बनाने तथा जैम सेशन आदि की  छूट बड़े पैमाने पर है. माहौल मुहब्बत का है न कि बाहर की  तरह नफरत का. हम सब जानते है कि प्यार में कितनी ताकत है इसलिये लोग खिंचे चले आते हैं. तिहाड़ में लोकप्रिय माँग पर वेलेंटाइन डे, फ़ैशन शो, सौंदर्य प्रतियोगिता, मिस्टर तिहाड़ प्रतियोगिता, आदि आयोजित कराने  के रूपरेखा अंतिम चरण में है. तिहाड़ श्री, तिहाड़ विभूषण आदि उपाधियाँ विजेताओं को दी जाएँगी. इसके साथ ही मिस ब्युटिफुल लिप, हेयर, लेग की तर्ज़ पर मिस्टर मसल्स, मिस्टर ब्युटिफुल उंगली (केवल जेबकतरों के लिए) मिस्टर ब्युटिफुल लेग (केवल भगोड़ों के लिए) मिस्टर जेल ब्रेकर आदि की उपाधियाँ भी दी जाएँगी. मुख्य अतिथि आदि की समस्या भी नहीं है, सब तिहाड़ में ही हैं. कहीं बाहर जाने की ज़रूरत ही नहीं. इसे कहते हैं आत्म-निर्भरता.
तिहाड़ की लोकप्रियता जिस रफ़्तार से बढ़  रही है बताते हैं कि वहाँ जाने वाली सड़कों का विशेष रख-रखाव और चमकाने का स्पेशल ठेका दिया गया है. इतने सारे वी.आई.पी. वहाँ ठहर रहे हैं कि वहाँ जाने वाली सभी सड़कों को चौड़ा करने के लिए वर्ल्ड बैंक से विशेष ऋण अथवा अनुदान, जो मिल जाए, के लिए एक शिष्टमंडल शीघ्र ही अमरीका भेजने का निर्णय लिया गया है. शिष्टमंडल के सभी बीस सदस्य वाया यूरोप अमरीका पहुँचेंगे तथा लौटते में ऑस्ट्रेलिया, हॉंगकॉंग होते हुए आयेंगे. बाद में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत कैदियों के दलों को भी विदेश भेजा जाएगा. जेल अधिकारियों के नेतृत्व में. इस में सभी अपराधों के क़ैदी शामिल किए जायेंगे. जैसे सभी मुख्य राजनीतिक दलों के सदस्य दूसरे देशों की जल-मल निकासी सिस्टम का अध्ययन करने यूरोप जाते हैं. विदेश जाने की होड़ को लेकर बहुत से अपात्र व्यक्ति भी पूछते फिर रहे हैं कि वे क्या करें कि इस एक्सक्लूसिव तिहाड़ क्लब की सदस्यता के पात्र हो जायें. इसकी मैम्बरशिप का वी.आई.पी कोटा किसके पास है.



No comments:

Post a Comment