Ravi ki duniya
Ravi ki duniya
Sunday, March 17, 2024
Humor: My favorite boss
Tuesday, March 5, 2024
व्यंग्य: गैस - हवा हवा
स्कूल
में हमें अलग अलग गैस के गुण पढ़ाये गए थे। गैस वह होती है जो हवा-हवा होती है। गंध
कैसी होती है? रंग कैसा होता है?
उसकी तासीर क्या होती है? ज्वलनशील होती है अथवा नहीं? इत्यादि इत्यादि। तभी का याद है कि हमारे वायुमण्डल में 78% नाइट्रोजन है
और मात्र 21% ऑक्सिजन होती है, जिस पर हम जीते हैं शान से...मरते
हैं शान से।
इसी श्रंखला में होती है एक लिक्विफाइड
पैट्रोलियम गैस (एल.पी.जी.) बोले तो कुकिंग गैस। कुकिंग गैस तक आने में हमें एक उम्र लगी है। एक रात
में नहीं पहुंचे हैं यहाँ तक। पहले चूल्हे जलाए जाते थे। लकड़ी खरीदी जाती थी। जलाई
जाती थी। लकड़ी, लकड़ी की टाल से खरीद कर लाई जाती थी। घर में
स्टोर की जातीं थीं और चूल्हे के अनुरूप छोटी-छोटी तोड़ी जाती
थीं। फिर आई अंगीठी, जिसमें कोयला और लकड़ी दोनों एक निश्चित
अनुपात में जलाए जाते थे। उसके बाद मॉडर्न लोग स्टोव ले आए। जिसमें कैरोसीन और हवा
भरनी पड़ती थी। स्टोव शोर खूब करता था।
कैरोसीन की बहुत मारामारी रहती
थी। डिब्बों में और बोतल में दुकान से लाना पड़ता था। यूं कैरोसीन को मिट्टी का तेल
कहा जाता था पर यह अच्छा खासा महंगा बिकता था और आसानी से मिलता भी नहीं था।
किल्लत रहती थी। बहुत जगह राशन में मिलता था। पाँच-दस पैसे बढ़ते ही बावेला मच जाता
था।
तब किसी किसी पर ही गैस होती थी। गैस
यूं ही नहीं मिल जाती थी। वेटिंग लिस्ट होती थी। वी.आई.पी. कोटा होता था। दो-एक बड़ी कंपनी ही गैस बनातीं थीं,
आबंटित करती थीं, सप्लाई करती थीं। गली-गली ठेले गैस के सिलिंडर लाते ले जाते देखे जा सकते थे। स्कूटर पर उसे ढँक
कर ले जाते थी क्यों कि इस प्रकार से ले जाना मना था। गैस लाने वाले को टिप देने
का रिवाज था। एक-दो रुपया काफी होता था। इसमें दो तीन तरह के स्कैम भी चलते थे:
1. सिलिंडर में वज़न से कम गैस होना। गैसकर्मी
एक-दो सिलिंडर से तीसरा नया सिलिंडर भर देता था। इसका पोर्टेबल जुगाड़ भी वह रखता
था। कहीं-कहीं लोग तंग आकर वज़न तोलने वाली मशीन घर में रखने लगे थे। मगर आखिर
कितने घर में ऐसी मशीन थीं।
2. यदि आपकी गैस खत्म हो जाये तो अरजेंट बेसिस पर
आपको सिलिंडर मिल जाता था। थोड़ा ‘ब्लैक’
में पैसा देना पड़ता था। इसका ‘एंटीडोट’
ये निकाला गया कि लोग दो सिलिंडर रखने लगे। मगर फिर वही बात कि कितने लोग ये ‘एफोर्ड’ कर सकते थे।
3. जिससे आप गैस लेते थे वह आपको चूल्हा भी बेचता
था। चूल्हा बेचने में ज्यादा प्रॉफ़िट था। यदि आप गैस वाले से चूल्हा खरीदने में ना
नुकुर करते थे तो गैस वाले भी सिलिंडर देने में हील-हवाला करते थे।
फिर आई पाइप वाली गैस। लेकिन वह आज भी
कहीं-कहीं ही है। बहुत कम इलाकों/शहरों में पाई जाती है।
चुनाव में गैस के सिलिंडर ने खूब भूमिका
निभाई है। एक दल कहता है हम 500/- का देते थे अब सरकार 1100/- का दे रही है। हमें
दोबारा सत्ता में लाओ हम फिर 500/- का कर देंगे। फिर बयान आया हम 350/- का कर
देंगे। ऐसा करते-करते एक ऐसी स्टेज आएगी, और मैं उस दिन
का ही इंतज़ार कर रहा हूँ जब एक पार्टी कहेगी हम फ्री में देंगे और दूसरी पार्टी
कहेगी कि हम सिलिंडर के साथ आपको 500/- ऊपर से देंगे। आखिर गैस भी तो ऊपर ही जाती
है न।
हवा हवा ऐ हवा तू खुशबू लुटा
दे....
नोट: मैं
एक शहर में ट्रांसफर पर गया तो अगली सुबह स्टाफ मेरा हाल-चाल पूछने आया. मैंने बताया “गैस की प्रॉबलम है!” एक स्टाफ ने तुरंत कहा “सर मेरे पास दो
सिलिंडर हैं” तब मैंने उन्हें समझाया “मैं अपने पेट की गैस की बात कर रहा हूँ”
व्यंग्य: हाई-वे का स्टार्टअप
चार या पाँच उद्यमशील नौजवानों की टीम
अदम्य साहस से लबरेज़ अपनी-अपनी ड्यूटी (नाइट शिफ्ट) के लिए तैयार हो जाएँ। इस
स्टार्टअप में आपको सदैव नाइट शिफ्ट में ही काम करना है। यूं कहिए अपुन का ऑफिस
रात की पाली में ही खुलता है। सभी नए ट्रेनीज़ और जो हमसे भविष्य में जुड़ना चाहें
उनके मार्गदर्शन के लिए अपने इस एंटरप्राइज़ की गतिविधि से आपको स्टेप बाई स्टेप
अवगत करा देता हूँ ।
आप जैसे ही अपनी ड्यूटी पोस्ट पर
पहुँचें तो टकटकी लगा कर दूर से आती हुई गाड़ी, कार, जीप को
भाँपना होता है। आपकी नज़र बहुत तेज़ होनी चाहिए, रात में भी देखने की क़ाबलियत
आपमें होनी चाहिए। इसके लिए आपकी आई-साइट सिक्स बाई सिक्स होनी ज़रूरी है। इसमें
बतौर रॉ मेटीरियल आपको कच्चे अंडे लगेंगे। पुराने अंडे, बासी
अंडे खरीद लें,
टोकरा का टोकरा खरीद लें, सस्ते पड़ेंगे। प्रेक्टिस
के तौर पर चलती कार,
जीप , बस पर उनके विंड शील्ड पर फेंकें। इससे आपका
निशाना पक्का होगा। जब निशाना ऐसा पक्का हो जाये कि आप को मछली की आँख तक पर अंडा
फेंकना आ जाये तो आपकी ट्रेनिंग पूरी मानी जाएगी। अब यह आपके एप्टिट्यूड और मेहनत
पर निर्भर करता है।
ये जो 5 लोगों का एंटरप्राइज़ है इसमें 2
एक्जक्युटिव होंगे,
एक मैनेजर, एक एरिया मैनेजर और एक वाइस प्रेसिडेंट
होंगे। दोनों एक्जक्युटिव थोड़ी दूरी पर सड़क के एक ओर खड़े होंगे। बेहतर होगा कि
किसी पेड़ की आड़ में रहें। पेड़ की पहचान
पहले दिन में ही कर लेनी है। ट्रैफिक का
अंदाज़ लगाना है। कितना फुट-फॉल है। एक प्रकार से आपको गुजरने वाली
गाड़ियों/कारों/जीपों की 'सेंसस' करनी है। गाडियाँ न कम हों न बहुत ज्यादा हों।
अब आती हुई गाड़ी पर आपको उसके विंड शील्ड
पर अंडा फेंकना है,
ड्राईवर की तरफ का निशाना लगते हुए। शुरू में आप चाहें तो
दो अंडे एक साथ फेंके ताकि एक मिस भी हो जाये तो दूसरा अंडा तो निशाने पर लगे।
इसके बाद आप दोबारा पेड़ की आड़ में आ जाएँ। फिर सीनियर एक्जक्युटिव को सक्रिय होना
है और पुनः विंड शील्ड को निशाना बनाना है। आपका यह लक्ष्य होना चाहिए कि
विंडशील्ड को बिलकुल सफ़ेद कर देना है। जैसे 'श्वेत पत्र' होता
है वैसे ही श्वेत शीशा होना है। ज़ाहिर है थोड़ी दूर जाकर कार या जो भी वाहन है रुक
जाना है। बस अब कंपनी के तीनों सीनियर लोगों को आना है। यह एक प्रकार से बोर्ड ऑफ
डारेक्टर्स की मीटिंग जैसा है। जहां निगोशिएशन करके डील करनी है और ज्यादा से
ज्यादा प्रॉफ़िट वाली डील फ़ाइनल करनी है, सील करनी है। मैनेजर ने आवाज
में पूरी-पूरी गंभीरता के साथ एकदम प्रोफेशनल तरीके से गहने, नगदी, पिन
नंबर अन्य सांसारिक वस्तुएँ ले लेनी हैं प्रेम प्यार से। फोन (सबसे पहले फोन लेने
हैं आजकल लोग पुलिस और अपने अन्य खास लोगों को 'फास्ट डायल' पर
रखते हैं ताकि वे ऐसी कोई नादानी करके आपकी और अपनी जान जोखिम में ना डालें।) कई
बार कुछ सवारी छद्म साहस दिखातीं हैं उनके
इस दुस्साहस को हेंडल करने के लिए आप पहले से ही एक लंबा छुरा, चॉपर, और
लाइटर वाली रिवाॅल्वर जैसे उपकरण निकाल कर प्रदर्शित कर दें ताकि सवारियों को यह
भरोसा हो जाये कि आप सीरियस हैं, प्रोफेशनल हैं, एंड यू
मीन बिजनिस।
ध्यान रहे कि आपको अपनी प्लांट मशीनरी का
प्रदर्शन बल्कि झलक भर दिखानी है। कोई भी सफल बिजनिसमैन अपने ट्रेड सीक्रेट नहीं
बताता फिरता है। अतः आपको बस झलक भर दिखानी है। उनका इस्तेमाल नहीं करना है। यह सब
काम आपको अपनी यूनिफ़ाॅर्म में करना है यूनीफ़ॅर्म कुछ ऐसी होनी चाहिए जिस पर ध्यान
ही न जाये। वे खुद कन्फ्यूज रहें कि कमीज किस रंग की थी या किस डिजाइन की थी, याद ही
न रहे। बल्कि बेहतर होगा कि आपके हुलिये और वेषभूषा को लेकर सवारी एक दूसरे को
काॅन्ट्राडिक्ट करें।
आप सवारियों को बता
दें आपका स्टार्टअप हिंसा को कतई बढ़ावा नहीं देता। यह पूरी तरह से एनवायरमेंट
फ्रेंडली,
पूर्णतः अहिंसक उद्योग है। बल्कि एक ग्रीन एंटरप्राइज़ है।
अंडा गैंग कहना उनके धंधे को बदनाम करने
की साजिश है। बल्कि आप तो अंडा वीर हैं।
नोट: माताओं
बहनों को प्रणाम करना न भूलें। चरण स्पर्श के चक्कर में न पड़ें पता नहीं कब में वे
आपकी गर्दन दबोच लें। बच्चों को टॉफी -चॉकलेट देना न भूलें। यू नो! रिटर्न गिफ्ट
! आप चाहें तो कुछ पैसा 'कैश-बैक' के तौर
पर उन्हें वापिस दे सकते हैं ताकि वे पेट्रोल भरवा सकें और नाश्ता कर सकें। अपने
को अपनी गुड विल बनाके रखनी है।
डिबिया दियासलाई की
माचिस का आविष्कार आपको जानकार आश्चर्य
होगा कि लाइटर के बाद हुआ। ऐसा कहा जाता है कि माचिस ने अपना वजूद सन 577 के लगभग
चीन देश से बनाया। आपने पुरानी अंग्रेज़ी फिल्में देखी हों तो आपको पता होगा कैसे
दियासलाई को हीरो कहीं भी रगड़ कर अपनी सिगरेट या अपना चुरुट जला लेता था। इन माचिस
को सल्फर माचिस कहा जाता था। वे कहीं भी जरा सी रगड़ से जल जाया करती थी। इसमें
दिक्कत ये थी कि बहुधा इस माचिस में खुदबखुद हिलने-ढुलने/घर्षण से आग लग जाती थी।
बाद के बरसों में रसायन अलग-अलग किए गए और फास्फोरस को माचिस की डिबिया से स्ट्रिप
रूप में चस्पा किया जाने लगा। अब जब तक आप सजग हो कर माचिस खोलेंगे, एक
दियासलाई निकालेंगे और फिर उसे जब तक अपने उँगलियों से पकड़ कर स्ट्रिप पर रगड़ेंगे
नहीं आग नहीं लगेगी। इस्तेमाल में सेफ थी। अतः इसको सेफ़्टी मैच भी कहा जाने लगा।
आपकी जानकारी के लिए सन् 1870 में भारत में
माचिस आई। ये माचिस जापान,
स्वीडन, आस्ट्रिया से आयीं। लाने वाले वही थे आपने
ठीक पहचाना ‘टाटा एंड सन्स’ (जापान) यह कहीं भी रगड़ कर इस्तेमाल करने वाली थी। एक
अन्य ब्रांड था ‘दि सुन्दरी’ स्वीडन)
यह सेफ़्टी मैच थी। इस पर पोस्टर भारतीय लगाए जाते थे। जैसे कि भारतीय वेषभूषा में
भारतीय नारी या शेर का चित्र। 1895 आते आते साहसिक व्यापारियों ने अहमदाबाद (गुजरात) में माचिस उत्पादन का
‘गुजरात इस्लाम मैच कारख़ाना’ डाला। परंतु यह उपक्रम किन्ही कारणो से सफल नहीं रहा।
जापानी प्रवासियों ने 1910 में कोलकाता
में मैच बनाना शुरू किया। एक स्थानीय व्यापारी पूर्ण चंद रॉय ने मैच बनाने की
फ़ैक्टरी शुरू की। तब का एक ब्रांड था ‘मदर इंडिया मैच’ और उसे डैम्प प्रूफ
(सीलन-प्रूफ) माचिस कह कर मशहूर किया गया। दो नाडार भाइयों ने कोलकाता की फ़ैक्टरी
देख कर यह काम शिवकाशी (तमिलनाडु) में शुरू करने का निश्चय किया। यह 1922 की बात
है। 1923 में इस क्षेत्र में स्वीडन की विमको (WIMCO) वैस्टर्न
इंडिया मैच कंपनी भी कूद गई। अपने अंबरनाथ
(मुंबई के निकट) के माचिस के प्लांट का बड़े स्तर पर मशीनीकरण किया गया। 1950 के
दशक तक मार्किट में इस कंपनी की तूती बोलती रही।
यूं माचिस भले विदेश से आतीं थीं किन्तु
उन पर लेबल एक प्रकार से विज्ञापन का काम करते थे। पुरानी 1905-1920 आस्ट्रिया से
आयातित माचिस के लेबल पर गायिका गौहर जान का फोटो खूब लोकप्रिय रहा। 1931 की
सत्तूर निर्मित माचिस पर भारत की पहली टाॅकी फिल्म आलम-आरा को 'टाॅकिंग
सिंगिंग एंड डान्सिंग'
कह प्रचारित किया गया। उसी वर्ष हुए गांधी-इरविन समझौते को
भी माचिस के लेबल पर खूब प्रचारित किया गया।
1940 का दशक आते-आते माचिस के लेबल भारत की आज़ादी का आव्हान कर रहे थे।
‘हमारा आखरी और अटल फैसला आज़ादी या मौत’।
1927 आते आते भारत में
माचिस की छोटी-बड़ी 27 फैक्टरी थीं। भारत आज़ाद होने के बाद माचिस के आयात पर रोक
लगा दी गई। 1949 में अकेले शिवाकाशी में माचिस की 90 फैक्टरी थीं। उत्तर भारत में
बरेली माचिस उत्पादन के एक बड़े केन्द्र के रूप मे उभरा। 67% माचिस उत्पादन शिवाकाशी
में होता है। यह अत्याधिक श्रम-साध्य कार्य है। 90% लेबर महिलाएं होतीं हैं।
अब एक टोटके या अंधविश्वास का ज़िक्र और
उसके मूल में क्या है ?
आपने देखा होगा कि दोस्तों की टोली एक दियासलाई से तीन
सिगरेट नहीं जलाती है। अंधविश्वास यह है कि ऐसा करने से तीनों में से एक की (तीसरे
की) मृत्यु हो जाती है। इसकी जड़ में है: जब दूसरे विश्व युद्ध में सैनिक लोग अपनी
सिगरेट जलाते थे तो आग से जो रोशनी होती थी उस से दुश्मन सजग हो जाता था। जब दूसरे
की सिगरेट जलाई जा रही होती थी उतनी देर में दुश्मन निशाना साध लेता था और तीसरे
की सिगरेट जलाते-जलाते दुश्मन फायर कर
देता था।
आज भारत में माचिस की 8 बड़ी फैक्टरी हैं। यथा एशिया मैच , ग्रीन
विन, क्वैन्कर मैचिस,एपोक एक्सपोर्ट्स,
एस आर एस भारत एक्सिम, बिलाल मैच ग्रुप, राजश्री
मैच वर्क्स, स्वर्ण मैच फैक्टरी।
भारत आज दुनिया में माचिस का सबसे बड़ा
निर्यातक है। चीन दूसरे नम्बर पर और टर्की तीसरे स्थान पर है। भारतीय माचिस अमरीका, जर्मनी, नाईजीरिया, भूटान
आदि देशों को निर्यात की जाती हैं। भारत प्रतिदिन 400 करोड़ माचिस बाॅक्स बनाती
है। विश्व में प्रयोग में आने वाली हर तीसरी माचिस भारत में बनी होती है। आई.टी.सी. (I.T.C.) ने
विमको कंपनी का अधिग्रहण कर लिया और उनके सभी 4 प्लांट्स बरेली, अंबरनाथ, चेन्नैई
और कोलकाता को बंद कर दिया और शिवाकाशी में उत्पादन को छोटी छोटी इकाइयों को
ऑउटसोर्स कर दिया।
Friday, March 1, 2024
व्यंग्य: नंबर गेम
वर्तमान में इसके अलग अर्थ हो गए हैं।
जैसे 400 पार करना। जैसे मंत्री महोदय का कहना कि फलां सूबे में हम 80 सीटें
जीतेंगे। दूसरी तरफ देखेंगे वहाँ अलग अंक गणित चल रहा है। उनका कहना है कि वे 100
के नीचे समेट देंगे। कभी कहते हैं 200 के नीचे ले आएंगे। फिर कहने लगते हैं 272 के
लाले पड़ जाएँगे।
भाई
साहब! अगर दोनों पक्ष सूबे की 80 की 80 सीटें जीत रहे हैं तो ज़ाहिर है एक पार्टी
झूठा दावा कर रही है। बस अपने कारकुनों का ‘मुराल हाई’ कर रहे हैं। उसी तरह समझ नहीं आ रहा कि 400 पार कैसे होगा। मगर कहना ये
है कि 400 कह दिया तो 400 जीतेंगे। 401 हो सकता है 399 नहीं होगा। नहीं होगा बस !
अब ज्यादा 3-5 नहीं करने का। पल में तोला
पल में माशा बोले तो पल में हीरो पल में 0
व्यंग्य: रतन ले लो भारत रतन
एक वक़्त था जब पद्मश्री को भी बहुत ही मान सम्मान से देखा जाता था।
सामान्यतः यह तभी मिलता था जब यह भली-भांति स्थापित हो जाता था कि अमुक व्यक्ति ने
किसी ‘नोबल-कॉज़’ के लिए अपनी
ज़िंदगी खपा दी है। बुढ़ापे में आकर पर्याप्त रूप से सीनियर होने पर ही समाज और देश
को दी गईं अपनी सेवाओं को देखते हुए पद्मश्री दी जाती थी। इस को कभी भी संदेह या
विनोद से नहीं देखा जाता था। हल्की टिप्पणी करना तो दूर की बात है।
फिर एक दौर ऐसा आया कि लोग-बाग ढूँढे जाने लगे। ट्रंक में से झाड़-पोंछ कर निकाले जाते। दूसरे शब्दों में ये मरणोपरांत दिये जाने लगे। धीरे
धीरे लोगों को यकीन हो चला कि जब तलक ज़िंदा हैं तब तक तो ये मिलना नहीं हैं।
फिर वो युग भी आया जब कहा जाने लगा कि देखो हमने एक धूल में पड़े हीरे को
ढूंढ निकाला है। जो पिछली सरकारों की लापरवाही से धूल खा रहे थे। हमने उन्हें राष्ट्रीय
पहचान दी। अथवा हमने पिछड़े वर्ग के प्रकांड विद्वान को उसका ड्यू दिलाया है।
फिर काम के आदमियों को ये दिया जाने लगा। वो जो काम में माहिर हों। जुगाड़ू
हों। वोट दिला सकें। वोटर्स को प्रभावित कर सकें। जो कभी काम आए थे या फिर वो जो
काम आ सकें, बोले तो वोट दिला सके। ग्रेट तो उन्होने हो
ही जाना है। हमारे राष्ट्रीय पुरस्कार के बाद कभी ऐसा हुआ है कि बंदा ग्रेट न हुआ
हो।
इस श्रंखला में कई लिस्टें निकल गईं हैं मेरी तरफ अभी तक ध्यान गया ही नहीं
है। ताज भोपाली साब ने ऐसी ही सिचुएशन पर लिखा है:
बज़्म के बाहर भी एक दुनिया है
मेरे हुज़ूर बड़ा जुर्म है ये बेखबरी
पहले लोग नाम
ही इस तरह के रख लेते थे कलेक्टर सिंह, तहसीलदार सिंह।
मैंने अपना नाम सोचा है भारत रतन या पद्म भूषण।
ये नाम चेंज करने का क्या
प्रोसीजर है?
Tuesday, February 27, 2024
व्यंग्य: क्लियरेंस सेल अंतरात्मा की
पहले मैं इस ग़लतफहमी में था कि अंतरात्मा
बिकाऊ नहीं होती। अंतरात्मा कोई नहीं खरीद सकता। मुझे कोई नौकरी नहीं मिली
और अग्निवीर क्या मुझे कोई सा भी वीर बनने का अवसर नहीं मिला। धीरे-धीरे जब मैं
ओवरएज हो गया तो मुझे पूरा पूरा यक़ीन हो चला कि अग्निवीर क्या मैं कैसा भी वीर
नहीं बन सकता तब मैंने हार कर पकोड़े बनाने का काम हाथ में लिया। दिक्कत ये थी कि
हर गली, हर चौराहे पर पहले ही पकौड़ेवाले इतनी बड़ी
तादाद में अपनी-अपनी थड़ी, टपरी, खोमचे
लगाए थे। मुझसे लोकल पुलिस 'टोल' बोले
तो हफ्ता मांगने लगी। वो भी इतनी दूर पकोड़ा बेचने की कह रहे थे जहां लोग-बाग भूले
भटके भी नहीं जाते थे।
इस पर मुझे एक विज़न बोले तो सपना आया कि क्यों न मैं पॉलिटिक्स में चला
जाऊं। देखता हूं बड़े-बड़े नेताओं के ड्राईवर, सहयोगी,
चमचे, निजी सचिव, बोले
तो हुक्का यानि चिलम भरने वाले भी बड़े आदमी बन गए हैं और लो जी मैं आ गया। ये
फील्ड बहुत रोचक है। हल्दी लगे न फिटकरी। बस लच्छेदार बात करना आना चाहिए। कभी नरम,
कभी गरम। लंबी-लंबी छोडना चाहिए। आम-जन को वो बहुत पसंद आता है।
ताबड़तोड़ फैन बन जाते हैं। आपको बस कुछ तकिया-कलाम रट लेने हैं देख लेंगे, मार दो, काट दो, विकास करना
है। नई ऊँचाइयाँ, चाल चरित्र चेहरा आदि आदि।
अब मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि कब मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनूँ और इधर
ब्रीफकेस पकड़ूँ उधर अंतरात्मा कहे जा इसके साथ बैठ जा। ये शर्म, ये झिझक, ये असंजमस क्यूँ ? राम
जी का ब्रीफकेस, राम जी की अंतरात्मा। अपने आसपास देख रहा
हूं सब अपनी-अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन रहे हैं। एक फैशन सा चल निकला है।
अंतरात्मा इठलाती, बल खाती रैम्प वॉक कर रेली है। बस एक बार ब्रीफकेस बोले तो खोखे दिख जाएँ। जब
तक खोखे दिखते रहेंगे, मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनता
रहूँगा।
अब मैं अपनी इस अंतरात्मा को क्या कहूँ। यह भी देश-काल के अनुसार वेश भूषा
और भाषा बदल लेती है। आत्मा को इतनी सारी भाषाएँ नहीं सीखनी चाहिए थीं। सुबह कुछ
आवाज़ देती है शाम को किसी और आवाज़ पर रिस्पोंस देती है। ये खोखे मेरी अंतरात्मा पर
बड़ा बोझ डालते हैं। यूं तो अंतरात्मा अक्सर कुंभकर्णी नींद में गुल रहती है।
अंतरात्मा को सोने की बीमारी है। यह
यदा-कदा ही जागती है। मैंने मोटा-मोटा ये पाया है कि मेरी अंतरात्मा ब्रीफकेस का
आकार-प्रकार देख जाग जाती है। और:
जब जाग उठे अरमान तो कैसे नींद आए...
अंतरात्मा, जो है सो, भेजे से
ज्यादा शोर करती है। गोली का इस पर असर नहीं पड़ता। यह तो खोखे की कायल है। बस यह
बताओ कितने खोखे में अंतरात्मा जाग उठेगी ताकि व्हिप पर भी व्हिप चल जाये। उसकी
अंतरात्मा का भी तो हमीं को ध्यान रखना है।
अंतरात्मा का बहुत ध्यान रखना होता है जब तब जाग जाये तो बहुत गड़बड़ कर देती
है। अपना नुकसान करा बैठती है। इधर चुनाव आए नहीं और ये जागी नहीं। वैसे ये सोती
रहती है। ऊँघती रहती है। जागती कम ही है।
बस पैसे वसूले
और पुनः निद्रामग्न !